विचार: चेतना का आविष्कार
Indian Views, विचार चेतना का आविष्कार है। यह व्यक्ति को गढ़ता है और समाज को भी। संस्कृति का स्वरूप आचार से प्रकट होता है, लेकिन उसका निर्माण विचार से होता है। विचार के माध्यम से गढ़ने की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। विचार प्रयोग की प्रेरणा देता है और प्रयोग से मूल्य निश्चित होते हैं। जब व्यक्तिगत मूल्य सामूहिक रूप धारण करते हैं, तब उनसे संस्कृति का निर्माण होता है।
अथर्ववेद के प्रसिद्ध सूक्त “आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः” में विचार को क्रतु (यज्ञ) के समान माना गया है। विचार की शक्ति यज्ञ के समान है, और इसलिए चारों दिशाओं से उत्तम विचारों की आकांक्षा प्रकट की गई है।
संस्कृति और उसका केंद्र-वर्ती विचार
प्रत्येक संस्कृति का अपना एक केंद्र-वर्ती विचार होता है। यह विचार भले ही दिखाई न दे, लेकिन वह संस्कृति की प्रत्येक बात में प्राणशक्ति की तरह व्याप्त रहता है। यह विचार वृक्ष के बीज के समान है। बीज दिखाई नहीं देता, लेकिन उसमें प्राणशक्ति हर कण में विद्यमान रहती है। यही विचार समाज का मानस गढ़ता है, और समाज का मानस संस्कृति और इतिहास को प्रभावित करता है।
नीति, राजनीति, धर्म, मर्यादा, व्यक्ति और समाज के संबंध, तथा पारस्परिक व्यवहार जैसे विषयों पर केंद्र-वर्ती सिद्धांत पुरखों और विचारशील पुरुषों द्वारा निर्धारित किए गए हैं। समाज के सभी व्यवहार इन निश्चित मानदंडों पर आधारित होते हैं। यह विचारशील पुरुष समाज को यह भी समझाते हैं कि इन नियमों को छोड़ने से क्या हानि हो सकती है।
विचारों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
जर्मनी के हिटलर का विचार था कि मनुष्य की शक्ति उसके वंश पर आधारित है। नॉर्डिक वंश का रक्त श्रेष्ठ है और अन्य निम्न हैं। नॉर्डिक वंश की शुद्धता बनाए रखने के लिए अन्य वंशों से विवाह न हो, यह हिटलर का केंद्रीय विचार था। इसके अलावा, वह लोकतंत्र को विघातक मानता था और अधिनायकवाद को श्रेष्ठ।
इसके विपरीत, रूस का केंद्रीय विचार वर्गविहीन समाज का निर्माण था। उसका मानना था कि अमीर-गरीब, मालिक-नौकर, ऊंच-नीच जैसे वर्ग समाज को नुकसान पहुंचाते हैं। इस विचार से साम्यवाद की उत्पत्ति हुई।
भारत का केंद्रीय विचार
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। इसका केंद्रीय विचार है—स्व का हित और सर्व का हित। इस विचार के तीन तत्व हैं:
- हित
- सर्वहित
- स्वहित और सर्वहित का संबंध
हित का अर्थ
सामान्यत: मनुष्य सुख और हित को एक मान लेता है। लेकिन भारतीय विचार में सुख से अधिक महत्वपूर्ण है हित। मिठाई खाना सुखद हो सकता है, लेकिन सभी के स्वास्थ्य पर उसका प्रभाव सोचकर निर्णय लेना ‘हित’ है।
सर्वहित
भारतीय विचार सर्वहित में केवल परिवार, जाति, प्रदेश, या देश तक सीमित नहीं रहता। यह समस्त मानव जाति, पशु-सृष्टि, और समस्त जीव-सृष्टि का हित देखता है। यहां तक कि पर्यावरण और प्रकृति का भी ध्यान रखा जाता है। जैन धर्म का सूत्र “परस्परोपग्रहो जीवानाम्” इस विचार का उत्कृष्ट उदाहरण है।
स्वहित और सर्वहित का संतुलन
स्वहित और सर्वहित परस्पर पूरक हैं। यदि इनमें असंतुलन हो तो समाज अस्थिर हो जाता है। इनका सामंजस्य जितना बेहतर होगा, समाज उतना ही स्वस्थ रहेगा।
जीवन का व्यवस्थित स्वरूप
भारतीय विचार के व्यावहारिक स्वरूप में चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) महत्वपूर्ण हैं। इनमें धर्म प्रमुख है, क्योंकि यह अर्थ और काम को नियंत्रित करता है। महाभारत के शल्यपर्व में कहा गया है:
जो व्यक्ति वासना के लिए धर्म और अर्थ को नहीं छोड़ता, अर्थ के लिए धर्म और काम को नहीं भूलता, और केवल धर्म के लिए अर्थ-काम को गौण नहीं करता, वही सच्चा सुख प्राप्त करता है।
धर्मार्थौ धर्मकामौ च कामार्थौ चाप्यपीडयन्।
धर्मार्थकामान् योऽभ्येति सोऽत्यन्तं सुखमश्नुते॥
समाज और राष्ट्र की आवश्यकता
भारतीय विचार ‘स्वहित-सर्वहित’ का पोषक है। यदि इस विचार को भुलाया न गया होता, तो राष्ट्र का पतन न हुआ होता। आज भी, यदि इस केंद्रीय विचार को अपनाया जाए, तो भारत मानसिक गुलामी से मुक्त होकर विश्व का श्रेष्ठ राष्ट्र बन सकता है।